Author : Pratnashree Basu

Published on May 02, 2024 Updated 0 Hours ago

दांव पर जो भी है उसकी व्याख्या नियम-आधारित प्रणाली के तहत प्राथमिकता हासिल करेगी.

चीन बनाम अमेरिका : “नियम आधारित व्यवस्था” के मुकाबले मूलभूत सिद्धान्तों से अलग रास्ता

इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में जैसे ही इस बात की स्वीकृति बढ़ रही है कि यह विकास का इंजन और गतिशीलता का केंद्र है, यहां कई देशों के बीच गठजोड़ का दायरा बढ़ता जा रहा है. साथ ही ‘नियम आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था’ को इस गठजोड़ के बनने के लिए बुनियाद के तौर पर देखा जा रहा है जो अहम हो गया है. इस शब्द को मौजूदा व्यवस्था के तहत काफी प्रमुखता प्रदान की गई है और कुछ हद तक यह ऐसे देशों के लिए पहचान बन गई है जो इस व्यवस्था को बनाए रखने या फिर उसे छोड़ना चाहते हैं. यह एक बेहद उपयोगी कार्रवाई है इसलिए, एक ऐसी शब्दावली का अर्थ समझना आवश्यक हो जाता है जो इंडो-पैसिफिक क्षेत्र की भू-राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित करती है.

इस शब्द का मूल द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जो व्यवस्था और संस्थाओं को इसने जन्म दिया उसमें पाया जा सकता है – जो संयुक्त राष्ट्र केंद्रित और अमेरिका के नेतृत्व के विस्तार में देखा जा सकता है. अमेरिकी नेतृत्व वाली नियम आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था और अंतर्राष्ट्रीय कानून की अवधारणा में उदार अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था और अंतर्राष्ट्रीय कानून शामिल है. इस परिप्रेक्ष्य से इसे समझने पर, इस शब्द के पुनर्जीवित होने की वजह वैश्विक दृष्टिकोण और मूल्यों की एक ऐसी व्यवस्था है जो अमेरिका द्वारा आगे बढ़ाई गयी और संरक्षित की गई व्यवस्था के उलट है – और जिसका चीन लगातार उल्लंघन करता रहा है. चीन का वैश्विक दृष्टिकोण तियानक्सिया सिद्धांत ( मतलब सभी स्वर्ग के नीचे) पर आधारित है, जिसका पश्चिमी विचारों और सिद्धान्तों से एकदम अलग रुख़ है. तियानक्सिया व्यवस्था मौजूदा व्यवस्था में ख़राबी के लिए समावेशी और सामंजस्यपूर्ण विश्व की एक तरह से सर्वोच्च राजनीतिक संस्था के तौर पर वकालत करता है. हालांकि, यह  बेहद काल्पनिक सिद्धान्त है, जो चीन के मध्यकालीन राजशाही कहानियों से जुड़ा हुआ है – जैसे दुनिया की सबसे बेहतर सभ्यता जिसके लिए दूसरे देशों को इसका कृतज्ञ बनाया गया .

दक्षिण चीन सागर की  सीमा को लेकर आक्रामकता और लगातार इसे आधिकारिक बयानों और सैन्य कार्रवाई से न्यायोचित ठहराने  में बीजिंग के असल रूख़ का पता चलता है . वास्तव में घरेलू राजनीतिक स्थिति को लेकर चीन यह संदेश देने की कोशिश कर रहा है कि वह अमेरिका द्वारा हावी एक वैश्विक सरकार की व्यवस्था की कमियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने में जुटा हुआ है.

पहली नज़र में वाशिंगटन और बीजिंग दोनों के विचार न्यायोचित लगते हैं. लेकिन वास्तविकता यही है कि अमेरिका या चीन के निजी दृष्टिकोण से समस्या नहीं पैदा होती है, बल्कि समस्या इससे पैदा होती है कि कैसे इस दृष्टिकोण तक पहुंचा गया, और इसे लागू करने के लिए कौन से कदम उठाए जा रहे हैं. अमेरिकी नेतृत्व वाली व्यवस्था नई संस्था और जंग के बाद पैदा होने वाली नई सरकार की रूपरेखा से जुड़ी हुई है, जो पूर्ववर्ती व्यवस्थाओं की नाकामी और ताजा भू-राजनीतिक मजबूरियों से सबक सीख कर तैयार की गई है. लेकिन इसके उलट चीनी व्यवस्था की बुनियाद इसकी सभ्यता के ऐतिहासिक अनुभवों में है. चीन हमेशा से अमेरिकी नेतृत्व वाले शांतिपूर्ण  और स्थिर वैश्विक व्यवस्था की संरचना को लेकर उलझन की स्थिति में रहा है, क्योंकि चीन इसे ‘असामान्य संधि’ और अपने इतिहास के संबंध में इसे दोहरा मापदंड मानता है जिसमें चीन एक ‘काल्पनिक दुश्मन’ के तौर पर देखा जाता है.

चीन के खिलाफ़ भरोसेमंद प्रतिरोध की रचना

चूंकि विचलन (या असहमति) का बिंदु बुनियादी रूप से एक है, तो सभी अपनी व्यवस्था को ही न्यायोचित मानने और बताने में लगे हैं. बीजिंग इस लिहाज से कुछ ज़्यादा ही आगे है. हालांकि,  समझने के लिए जो बात महत्वपूर्ण है,  वो यह कि दुनिया में काफी बदलाव हुए हैं, और सीमाओं के कानूनी सीमांकन, क्षेत्राधिकार और समय के साथ ज़्यादातर मुल्कों द्वारा कानूनी प्रक्रियाओं को ऊंचा स्थान प्रदान करने के साथ ही दुनिया भर में कई तरह की सरकार की व्यवस्थाओं ने भी जन्म लिया है, लेकिन चीन अपने अंतर्राष्ट्रीय कानूनी हकों को लेकर ऐसी व्यवस्था के ठीक उलट सोच रखता है क्योंकि चीन का मानना है कि ऐसे कानूनी अधिकार इतिहास से  प्राप्त होते हैं, ना कि युद्ध के बाद पैदा होने वाले आधुनिक अंतर्राष्ट्रीय कानूनों से. चीन ने भी संयुक्त राष्ट्र के कानूनी प्रस्तावों पर हस्ताक्षर किया है,  इस सत्य के बावजूद फिलीपींस द्वारा लाए गए मध्यस्थता मामले में अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के फैसले के लिए चीन का असम्मान इस बात को स्पष्ट कर देता है कि,  चीन में स्थापित प्रक्रियाओं और संस्थाओं के प्रति भारी उदासीनता है, खास कर तब जबकि कोई संदर्भ उसके अनुरूप नहीं होते हैं. इस मामले में चीन ने जो स्पष्टीकरण दिया है उसमें यह तर्क दिया गया है कि ऐसे मामलों में कोर्ट का कोई क्षेत्राधिकार नहीं है.  दक्षिण चीन सागर की  सीमा को लेकर आक्रामकता और लगातार इसे आधिकारिक बयानों और सैन्य कार्रवाई से न्यायोचित ठहराने  में बीजिंग के असल रूख़ का पता चलता है . वास्तव में घरेलू राजनीतिक स्थिति को लेकर चीन यह संदेश देने की कोशिश कर रहा है कि वह अमेरिका द्वारा हावी एक वैश्विक सरकार की व्यवस्था की कमियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने में जुटा हुआ है.

दक्षिण चीन सागर की  सीमा को लेकर आक्रामकता और लगातार इसे आधिकारिक बयानों और सैन्य कार्रवाई से न्यायोचित ठहराने  में बीजिंग के असल रूख़ का पता चलता है . वास्तव में घरेलू राजनीतिक स्थिति को लेकर चीन यह संदेश देने की कोशिश कर रहा है कि वह अमेरिका द्वारा हावी एक वैश्विक सरकार की व्यवस्था की कमियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने में जुटा हुआ है.

‘विघटन’ के ख़तरों में अंतरराष्ट्रीय प्रक्रियाओं और अंतरराष्ट्रीय नियमों के अध्ययन का एक अहम हिस्सा शामिल है, और जैसा कि इतिहास इसका साक्षी रहा है, राज्य में सत्ता बुनियादी नियमों और अंतर्राष्ट्रीय कानून के आदर्शों की अलग तरह से व्याख्या करता है और उसे लागू करता है. ऐसे में जो दांव पर लगा है, वह यह है कि आखिर नियम आधारित व्यवस्था को लेकर किसे प्राथमिकता दी जाए. दूसरे शब्दों में विघटन को लेकर जताई गई चिंता अंतर्राष्ट्रीय नियमों और कानूनों के ख़ात्मे को लेकर नहीं बल्कि ऐसी प्रतियोगी व्यवस्थाओं के चलते वैश्विक अस्थिरता और लड़ाई की स्थिति को लेकर है. मौजूदा परिप्रेक्ष्य और इंडो- पैसिफिक के संबंध में पहले से चली आ रही संवाद और कानूनी प्रक्रियाओं की रक्षा करने की दिशा में कोशिश करना इस भौगोलिक क्षेत्र में सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है. और यही वजह है कि नीति निर्माताओं ने रिसर्च, आधिकारिक बयानों और श्वेत दस्तावेजों के ज़रिए इसे लेकर ख़तरे की घंटी बजाई है. मसलन, 1945 में जिस कानून सम्मत वैश्विक व्यवस्था की शुरुआत की गई थी वह आज ख़तरे में है, और पूरी दुनिया को ख़तरनाक मुहाने पर ले आई है. विवाद की दूसरी वजह में यह अनुमान शामिल है कि क्या ऐसी कानून आधारित व्यवस्था अल्पसंख्यकों के लिए फायदेमंद हो पाएगी या फिर बहुमत को इसका फायदा होगा. आखिर देश की विदेश नीति में इसकी क्या भूमिका हो.

चीन की कर्ज़ के चाल में फंसाने की कूटनीति, भेड़िए जैसी योद्धा की कूटनीति, अर्धसैनिक बलों की गतिविधियां, और  दूसरों को गठबंधन के लिए प्रेरित करना जैसी बातें इस ओर इशारा करती हैं कि उसके ख़िलाफ़ एक प्रभावी और भरोसेमंद प्रतिरोधक क्षमता तैयार करना अभी बाकी है.  

यह माना जा रहा है कि स्थापित व्यवस्था की अक्षमता को चीन के ख़िलाफ़ एक भरोसेमंद प्रतिरोध के रूप में तैयार करना उसके द्वारा अंतर्राष्ट्रीय समुद्री कानून के बार-बार उल्लंघन के साथ क्षेत्राधिकार और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की अवहेलना जैसी बातों से स्पष्ट हो जाता है. हाल के वर्षों में मौजूदा व्यवस्था के समर्थन में तैयार की जाने वाली बातें इसे संचालित करने के लिए आवश्यक हैं जैसे ‘स्वतंत्र और मुक्त इंडो पैसिफिक’  जिसमें  ‘एक तरह की सोच रखने वाले सहयोगियों’ को साथ लाने की बात शामिल है. इसके ठीक उलट चीन ने मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था पर लगातार प्रहार कर अपनी स्थिति को मजबूत करने की कोशिश की है. चीन की कर्ज़ के चाल में फंसाने की कूटनीति, भेड़िए जैसी योद्धा की कूटनीति, अर्धसैनिक बलों की गतिविधियां, और  दूसरों को गठबंधन के लिए प्रेरित करना जैसी बातें इस ओर इशारा करती हैं कि उसके ख़िलाफ़ एक प्रभावी और भरोसेमंद प्रतिरोधक क्षमता तैयार करना अभी बाकी है.  और जब तक ऐसा नहीं हो जाता तब तक कानून आधारित व्यवस्था के ख़िलाफ़ बीजिंग की मनमानी को बढ़ावा मिलता रहेगा.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.